मंगलवार, 16 अक्तूबर 2007

विद्या

किसी भी वस्तु का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना ही विद्या है। यह कई प्रकार की होती है। लुहार, बढ़ई, सुनार, चित्रकार आदि का कार्य और मूर्तिकला अनेक प्रकार की विद्याएँ हैं। जो मानव किसी प्रकार की विद्या जानता है, वह उसका पण्डित कहा जाता है।

विद्या ही मानव का वास्तविक श्रृंगार है। विद्या ऐसा अमूल्य धन है जिसे न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बन्धु बांट सकते हैं,न पानी गला सकता है , न आग जला सकती है। धन खर्च करने से घट सकता है; किन्तु विद्या देने से बढ़ती है और इसे प्राप्त करने वाला सर्वत्र सम्मान पाता है।

विद्या से मानव अपनी अच्छाई और बुराई के विषय में भली-भांति सोच समझ सकता है। राष्ट्र की कमियों को दूर करने में सरकार का हाथ बंटा सकता है। मानव ने इसी के बल पर कई आविष्कार किये हैं जिससे जीवन को कई सुविधाऐं प्राप्त हैं। यह हमे यश, आदर और पैसा देती है। इसके बल पर हम हर इच्छा की पूर्ति कर सकते हैं ।

अतः हमें चाहिये कि विद्या के प्रचार के लिये तन , मन, धन से लग जाएँ और देश से अज्ञानता दूर करने का प्रयास करें ।

कोई टिप्पणी नहीं: